अध्यात्म रामायण (गीता प्रेस) हिन्दी ग्रन्थ | Adhyatma Ramayan (Gita-Press) Hindi Book PDF

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अध्यात्म रामायण हिन्दी ग्रन्थ के बारे में अधिक जानकारी | More details about Adhyatma Ramayan Hindi Book

इस ग्रन्थ का नाम है : अध्यात्म रामायण | इस ग्रन्थ के लेखक/प्रकाशक हैं : गीता प्रेस गोरखपुर | इस रचना के हिन्दी अनुवादक हैं : मुनिलाल | इस पुस्तक की पीडीएफ फाइल का कुल आकार लगभग 402 MB हैं | इस पुस्तक में कुल 386 पृष्ठ हैं |

Name of the book is: Adhyatma Ramayan | This book is written/published by : Gita Press Gorakhpur | Hindi translation is done by: Munilal. Approximate size of the PDF file of this book is: 402 MB. This book has a total of 386 pages.

पुस्तक के लेखकपुस्तक की श्रेणीपुस्तक का साइजकुल पृष्ठ
गीता प्रेसभक्ति, धर्म402 MB386


पुस्तक से :

श्रीमदध्यात्मरामायण कोई नवीन ग्रन्थ नहीं है, जिसके विषय में कुछ विशेष कहने की आवश्यकता हो. यह परम पवित्र गाथा साक्षात् भगवान् शङ्करने अपनी प्रेयसी आदिशक्ति श्रीपार्वतीजीको सुनायी है। यह आख्यान ब्रह्माण्डपुराणके उत्तरखण्ड के अन्तर्गत माना जाता है। अतः इसके रचयिता महामुनि वेदव्यास जी ही हैं। इसमें परम रसायन रामचरितका वर्णन करते-करते पद-पद पर प्रसङ्ग उठाकर भक्ति, ज्ञान, उपासना, नीति और सदाचार सम्बन्धी दिव्य उपदेश दिये गये हैं। विविध विषयोंका विवरण रहनेपर भी इसमें प्रधानता अध्यात्मतत्त्व के विवेचन की ही है। इसीलिये यह 'अध्यात्मरामायण' कहलाता है।

  

रसिकजन संसार के सभी भोगोंको छोड़कर अपनी आयु को एकमात्र उसीके अनुशीलन में लगाकर अपने को अत्यन्त बड़भागी समझते हैं। वे उसकी माधुरीका आस्वादन करते-करते कभी नहीं अघाते। अन्य लौकिक एवं पारलौकिक भोगोंका पर्यवसान उनसे विरक्त हो जाने-अघा जाने में होता है, किन्तु इस लोकोत्तर रस से इसके रसिक का चित्त कभी नहीं ऊबता। जिसका चित्त इससे ऊबने लगे, समझना चाहिये उसने इसका आस्वादन ही नहीं किया। इसीलिये रसिकचक्रचूडामणि श्रीमद्गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं: रामचरित जे सुनत अघाहीं। रस बिसेष जाना तिन्ह नाहीं ॥

 


आजकल जिस श्रीरामचरितमानसमें अवगाहन कर करोड़ों नर-नारी अपनेको कृतकृत्य मान रहे हैं, उसके कथानक का आधार भी अधिकांश में यही ग्रन्थ है। श्रीरामचरितमानसकी कथा जितनी अध्यात्मरामायण से मिलती-जुलती है उतनी और किसीसे नहीं मिलती। इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि श्रीगोस्वामी तुलसीदासजीने भी इसी का प्रामाण्य सबसे अधिक स्वीकार किया है।

 (नोट : उपरोक्त टेक्स्ट मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियां संभव हैं, अतः इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये.)


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