आजीवन निरोग कैसे रहे हिन्दी पुस्तक | Ajivan Nirog Kaise Rahen Hindi PDF

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आजीवन निरोग कैसे रहे हिन्दी ग्रन्थ के बारे में अधिक जानकारी | More details about Ajivan Nirog Kaise Rahen Hindi Book

इस ग्रन्थ का नाम है : आजीवन निरोग कैसे रहे | इस ग्रन्थ के लेखक/संपादक हैं : डॉ प्रकाश ब्रह्मचारी | इस पुस्तक के प्रकाशक हैं : भाषा भवन, मथुरा | इस पुस्तक की पीडीएफ फाइल का कुल आकार लगभग 28 MB हैं | इस पुस्तक में कुल 77 पृष्ठ हैं |

Name of the book is: Ajivan Nirog Kaise Rahen | This book is written/edited by : Dr Prakash Brahmachari | This book is published by : Bhasha Bhavan, Mathura. Approximate size of the PDF file of this book is: 28 MB. This book has a total of 77 pages.

पुस्तक के लेखकपुस्तक की श्रेणीपुस्तक का साइजकुल पृष्ठ
डॉ प्रकाश ब्रह्मचारीस्वास्थ्य28 MB77


पुस्तक से :

आज के सामान्य परिवार एवं समाज की स्वाभाविक स्थिति ऐसी बन गई है कि वह अनुपयोगी एवं कष्टसाध्य रोगी व्यक्तियों की सेवा करना भार मानने लगा है। इसका कटु अनुभव जीर्ण रोगोंसे आक्रान्त बच्चों एवं वृद्ध जनों दोनों को करना पड़ रहा है। मूल गलती यह है कि प्रायः माता-पिता स्वस्थ रहने रखने के रहस्य से अनभिज्ञ हैं। फलतः अपने व बच्चों के गलत भोजन या गलत लालन-पालन के कारण वह स्वयं और उनके बच्चे रोगी होते हैं, और फिर कष्टसाध्य रोगों में फँस जाते हैं।

 

मानव की नाना प्रकार के भोगों को भोगने की स्वाभाविक रुचि होती है। इसके लिए अर्थ, भोग-कला और निश्चिन्तता के साथ शक्तिशाली स्वस्थ शरीर सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। जीविकोपार्जन, विद्या, ज्ञान विज्ञान, कला • आदि की उपलब्धि के लिये भी स्वस्थ शरीर नितांत अपेक्षित है। समाजमें मान-सम्मान व प्रेम पाना सबको अच्छा लगता है और इसके लिये विद्या व कला से युक्त व्यवहार कुशल परोपकारी जीवन व प्रसन्न, हँसमुख चेहरा एवं सौहाई पूर्ण आकर्षक व्यक्तित्व स्वस्थ शरीर में ही सम्भव है।

 


सब साधनों का आधार स्वास्थ्य ही है। शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम् । अतः अब मैं स्वास्थ्य प्राप्त करने के सहज उपायोंकी बात प्रारम्भ करने जा रहा हूँ। इसको बिडम्बना या उपहास की बात ही कह सकते हैं कि आज के शिक्षित मानव के जीवन में प्राय: वह आरोग्य, शक्ति, स्फूर्ति व मस्ती नहीं दिखाई देती जो प्रकृति प्रदत वातावरण में अपने स्वाभाविक नियमों का पालन करते प्रायः सभी जीव-जन्तु, पशु-पक्षी आदि में पायी जाती है। इससे यह कहा जा सकता है कि आज का शिक्षित मानव बड़े प्रयास से धन, शक्ति एवं समय खर्च करके प्रकृतिके सहज स्वाभाविक स्वस्थ व निरोग रखने के नियमों पर शासन करके, मनमाने ढंग से चलकर नाना प्रकार के रोग व दुःख दर्द प्राप्त करके उनसे प्राप्त होने वाले कष्टों के नये नये प्रकार के आनन्दों का आस्वादन करता है।

 (नोट : उपरोक्त टेक्स्ट मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियां संभव हैं, अतः इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये.)


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