चंद्रगुप्त मौर्य हिन्दी पुस्तक | Chandragupt Maurya Hindi Book PDF

                          

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चंद्रगुप्त मौर्य हिंदी पुस्तक के बारे में अधिक जानकारी | More details about Chandragupt Maurya Hindi Book

इस पुस्तक का नाम है: चंद्रगुप्त मौर्य | इस पुस्तक के लेखक हैं : डॉ. श्यामबिहारी मिश्र | पुस्तक का प्रकाशन किया है : गंगा पुस्तकमाला, लखनऊ | इस पुस्तक की पीडीएफ फाइल का कुल आकार लगभग 16 MB हैं | पुस्तक में कुल 246 पृष्ठ हैं |

Name of the book is : Chandragupt Maurya. This book is written by: Dr Shyam Bihari Mishra. The book is published by: Ganga Pustakmala, Lucknow. Approximate size of the PDF file of this book is 16 MB. This book has a total of 246 pages.

पुस्तक के लेखकपुस्तक की श्रेणीपुस्तक का साइजकुल पृष्ठ
डॉ. श्यामबिहारी मिश्र  इतिहास,उपन्यास16 MB246



पुस्तक से : 

महावंशने इनके पिताको हिमालय में राजा माना  है । संभव है, पिप्पली-कानन के इस नरेश ने हिमालय में भी कोई छोटा-सा राज्य उपार्जित कर लिया हो। इनके पिता पाटलिपुत्रके नवनंद-वंशी सम्राट् धननंद के सेनापति थे । यह घननंद सम्राट् उग्रसेनके उत्तराधिकारी भाई थे। पुराणों के अनुसार महापद्मनंद इस वंशका संस्थापक, नंदवंशी अंतिम सम्राट् महानंदिनका किसी नाइ से उत्पन्न बेटा था।

 

उधर जैन ग्रंथों तथा ग्रीक लेखक स्ट्रैबोका कथन है कि महानंदिनकी रानीका एक नाईसे संपर्क हो गया, जिससे महापद्मका जन्म हुआ, तथा इसी कुचक्रमें महानंदिनका विनाश भी हुआ। महापद्मके सम्राट् हो जानेसे यह राजघराना नवीन नंद-वंश होने से 'नवनंद-वंश' कहलाया । यहाँ नवसे प्रयोजन 9 संख्या का न होकर नवीन का था।

 

घननंद का व्यवहार अपने पहलेवाले मंत्री शकटार से अच्छा न था, और कई कारणों से राजाने उसे बंदी-गृह में डालकर एक अन्य मंत्री कात्यायनको प्रधान मंत्री बना दिया था। शकटार के बंदी- जीवनमें उसके कई पुत्र मर गए, और इसे समझ पड़ा कि यदि यह स्वतंत्र होता, तो उनकी शोचनीय मृत्यु न होती । अनंतर किसी बात पर प्रसन्न होकर राजाने उसे फिर से मंत्री बना दिया, किंतु इस बार महामंत्री न बनाकर कात्यायनके प्रधानत्व में साधारण मंत्री मात्र नियत किया।

 

 

अब यह क्रोधी ब्राह्मण पाटलिपुत्रसे जाकर अपने पुराने विश्वविद्यालय तक्षशिला में शिक्षक नियत हो गया। पाटलिपुत्र से चलते समय यह चंद्रगुप्तको तक्षशिला आने का निमंत्रण देता गया था, और इन्होंने भी गुरु भक्ति के कारण इस आज्ञा के यथावकाश पालन करनेका वचन दिया था। इधर सुनंदा ने इनसे विद्या-लाभ का श्रम तो थोड़ा किया, किंतु धीरे-धीरे इन पर प्रेम प्रकट करने से वह अपने को रोक न सकी।

 (नोट : उपरोक्त टेक्स्ट मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियां संभव हैं, अतः इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये.)


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