धर्मतत्त्व : स्वामी विवेकानंद हिन्दी पुस्तक | Dharma-Tattva : Swami Vivekananda Hindi Book PDF

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धर्मतत्त्व पुस्तक के बारे में अधिक जानकारी | More details about Dharma-Tattva Book

इस पुस्तक का नाम है: धर्मतत्त्व | इस पुस्तक के लेखक हैं : स्वामी विवेकानन्द | पुस्तक का प्रकाशन किया है : श्री रामकृष्ण आश्रम, नागपुर | इस पुस्तक की पीडीएफ फाइल का कुल आकार लगभग 4 MB हैं | पुस्तक में कुल 122 पृष्ठ हैं |

Name of the book is : Dharma-Tattva. This book is written by: Swami Vivekananda. The book is published by: Shri Ramakrishna Aashram, Nagpur. Approximate size of the PDF file of this book is 4 MB. This book has a total of 122 pages.

पुस्तक के लेखकपुस्तक की श्रेणीपुस्तक का साइजकुल पृष्ठ
स्वामी विवेकानन्द धर्म, अध्यात्म4 MB122



पुस्तक से : 

मानव जाति के भाग्य निर्माण में जितनी शक्तियों ने योगदान दिया है और दे रही हैं, उन सब में धर्म के रूपमें प्रकट होने चाली शक्ति से अधिक महत्त्वपूर्ण कोई नहीं है। सभी सामाजिक संगठनों के मूलमें कहीं न कहीं यह अद्भुत शक्ति काम करती रही है, तथा अब तक मानवता की विविध इकाइयों को संघटित करने वाली सर्वश्रेष्ठ प्रेरणा इसी शक्तिसे प्राप्त हुई है। हम सभी जानते हैं कि धार्मिक एकता का सम्बन्ध प्रायः जातिगत, जलवायुग तथा वंशानुगत एकता के सम्बन्धों से भी दृढ़तर सिद्ध होता है। यह एक सर्वविदित तथ्य है कि एक ईश्वर को पूजने वाले तथा एक धर्म में विश्वास करनेवाले लोग जिस दृढ़ता और शक्तिसे एक दूसरे का साथ देते है। यह एक ही वंश के लोगों को बात हो गया, भाई-भाई में भी देखने को नहीं मिलता।

 

इस प्रकार सभी धर्मों ने यह एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त प्रतिपादित किया कि मनुष्य का मन कतिपय क्षणों में इन्द्रियों की सीमाओं के ही नहीं, बुद्धि की शक्ति के भी परे पहुँच जाता है। उस अवस्था में यह उन तथ्यों का साक्षात्कार करता है, जिनका ज्ञान न कभी इन्द्रियों से हो सकता था और न चिन्तन से ही ये तथ्य हो संसार के सभी धर्मों के आधार हैं। निश्चय ही हमें इन तथ्यों में सन्देह करने और उन्हें बुद्धि की कसौटी पर कसने का अधिकार है।

 

 

इस सामंजस्य को लाने के लिए दोनों को ही आदान-प्रदान करना होगा, त्याग करना पड़ेगा, यही नहीं, कुछ दुःखद बातों को भी सहन करना पड़ेगा पर इस त्याग के परिणामस्वरूप प्रत्येक व्यक्ति और भी निखर उठेगा और सत्य के सन्धान में अपनेको और भी आगे पायेगा। अन्त में देश-काल की सीमाओं में बद्ध ज्ञान का महामिलन उस ज्ञान से होगा, जो इन दोनोंसे गरे है, जो मन तथा इन्द्रियोंकी पहुँच से परे है जो निरपेक्ष है, असीम है, द्वितीय है।

 (नोट : उपरोक्त टेक्स्ट मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियां संभव हैं, अतः इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये.)


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