श्री योगवशिष्ठ महारामायण हिन्दी पुस्तक | Shri Yoga Vasistha Maharamaya Hindi Book PDF

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श्री योगवशिष्ठ महारामायण हिन्दी ग्रन्थ के बारे में अधिक जानकारी | More details about Shri Yoga Vasistha Maharamayan Hindi Book

इस ग्रन्थ का नाम है : श्री योगवशिष्ठ महारामायण | इस ग्रन्थ के मूल रचनाकार हैं : महर्षि वशिष्ठ. इस पुस्तक की पीडीएफ फाइल का कुल आकार लगभग 3 MB हैं | इस पुस्तक में कुल 563 पृष्ठ हैं |

Name of the book is: Shri Yoga Vasistha Maharamayan | This book is originally composed by : Maharshi Vasistha | Approximate size of the PDF file of this book is: 3 MB. This book has a total of 563 pages.

पुस्तक के लेखकपुस्तक की श्रेणीपुस्तक का साइजकुल पृष्ठ
श्री ज्ञानेश्वर जी महराजभक्ति, धर्म3 MB563


पुस्तक से :

हे साधो! यह जो पञ्चभूत का शरीर तुम देखते हो सो सब वासनारूप है और वासनासे ही खड़ा है। जैसे माला के दाने धागे के आश्रय से गुथे होते हैं और जब धागा टूट जाता है तब न्यारे न्यारे हो जाते हैं और नहीं ठहरते वैसे ही वासनाके क्षय होने पर पञ्चभूतका शरीर नहीं रहता। इससे सब अनर्थों का कारण वासनाही है। शुद्ध वासनामें जगत् का अत्यन्त अभाव निश्चय होता है. हे शिष्य! अज्ञानी की वासना जन्मका कारण होती है और ज्ञानी की वासना जन्मका कारण नहीं होती जैसे कच्चा बीज उगता है और जो दग्ध हुआ है सो फिर नहीं उगता वैसे ही अज्ञानीकी वासना रससहित है इससे जन्म का कारण है और ज्ञानीकी वासना रसरहित है वह जन्मका कारण नहीं.

 

रामजी बोले, हे मुनीश्वर जैसे कमलपत्र के ऊपर जल की बूंदें नहीं ठहरती वैसे ही लक्ष्मी भी क्षण भंगुर है। जैसे जल से तरंग होकर नष्ट होती हैं वैसे ही लक्ष्मी वृद्धि होकर नष्ट हो जाती है। हे मुनीश्वर! पवन को रोकना कठिन है पर उसे भी कोई रोकता है और आकाशका चूर्ण करना अति कठिन है उसे भी कोई चूर्ण कर डालता है और बिजली का रोकना अति कठिन है सो उसे भी कोई रोकता है, परन्तु लक्ष्मीको कोई स्थिर नहीं रख सकता। जैसे शश की सींगों से कोई मार नहीं सकता और आरसी के ऊपर जैसे मोती नहीं ठहरता, जैसे तरंगकी गाँठ नहीं पड़ती वैसे ही लक्ष्मी भी स्थिर नहीं रहती। लक्ष्मी बिजली की चमक-सी है सो होती है और मिट भी जाती है।

 


एक दिन रामजी अध्ययनशाला से विद्या पढ़के अपने गृहमें आये और सम्पूर्ण दिन विचारसहित व्यतीत किया फिर मन में तीर्थ ठाकुरद्वारे का संकल्प धरकर अपने पिता दशरथके पास, जो अति प्रजापालक थे, आये और जैसे हंस सुन्दर कमल को ग्रहण करे वैसे ही उन्होंने उनका चरण पकड़ा। जैसे कमलके फूल के नीचे कोमल सरैयाँ होती हैं और उन तरैयों सहित कमल को हंस पकड़ता है वैसे ही दशरथजी की अंगुलियों को उन्होंने ग्रहण किया और बोले, हे पिता मेरा चित्त तीर्थ और ठाकुरद्वारों के दर्शनों को चाहता है। आप आज्ञा कीजिये तो मैं दर्शन कर आऊँ।

 (नोट : उपरोक्त टेक्स्ट मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियां संभव हैं, अतः इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये.)


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