भक्ति योग - स्वामी विवेकानन्द हिन्दी पुस्तक | Bhakti Yog - Swami Vivekananda Hindi Book PDF

                                      

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भक्ति योग हिंदी पुस्तक के बारे में अधिक जानकारी | More details about Bhakti Yog Hindi Book

इस पुस्तक का नाम है: भक्ति योग | इस पुस्तक के लेखक हैं : स्वामी विवेकानन्द |  पुस्तक का प्रकाशन किया है : सरस्वती पुस्तक भण्डार, लखनऊ | इस पुस्तक की पीडीएफ फाइल का कुल आकार लगभग 3 MB हैं | पुस्तक में कुल 130 पृष्ठ हैं |

Name of the book is : Bhakti Yog. This book is written by: Swami Vivekananda. The book is published by: Saraswati Pustak Bhandar, Lucknow. Approximate size of the PDF file of this book is 3 MB. This book has a total of 130 pages.

पुस्तक के लेखकपुस्तक की श्रेणीपुस्तक का साइजकुल पृष्ठ
स्वामी विवेकानन्दधर्म,भक्ति3 MB130



पुस्तक से : 

निष्कपट रूपसे ईश्वरानुसन्धान ही भक्ति-योग है। प्रेम ही इसका आदि, मध्य और अवसान है। भगवद् भक्ति मे एक मुहूर्त्त उन्मत्त रहना शाश्वत मुक्तिप्रद होता है। नारद अपने भक्तिसूत्र में कहते हैं कि "भगवान का परम प्रेमही भक्ति है। जीव इसका लाभ करके समस्त प्राणियों के प्रति प्रेमवान् और घृणा शून्य होजाता है एवं अनन्त काल पर्यन्त तुष्टिलाभ करता है। इस प्रेमके द्वारा कोई काम्य सांसारिक वस्तुकी प्राप्ति नहीं हो सकती है। क्योंकि विषय वासना रहते हुये इस प्रेम का उदय ही नहीं होता है। भक्ति कर्म, ज्ञान, और योगसे भी श्रेष्ठतर है। क्योंकि साध्य विशेष ही उनका लक्ष्य है, किन्तु "भक्ति स्वयं साध्य एवं साधन रूप है ।"

 

भक्ति की एक बड़ी विशेषता यह है कि वह हमारे परम लक्ष्य ईश्वर-प्राप्तिके निमित्त अत्यन्त सहज और स्वाभाविक मार्ग है, किन्तु इसकी बड़ी असुविधा यह है कि अपने निम्न तलों में प्रायः यह भयानक कट्टरताका स्वरूप धारण कर लेती है। हिन्दू, मुसलमान अथवा ईसाइयों का कट्टर दल इस निम्नस्तलवर्ती साधकों में से ही प्राय: अनेक समयोंमें प्राप्त किया जाता रहा है। जिस इष्ट निष्ठा के बिना स्वाभाविक प्रेमका होना ही असम्भव है, वही अनेक अवसरों पर परमत के प्रति तीव्र आक्रमण और दोषारोपण का कारण होती है।

 

 

जिस प्रकार एक बर्तन से निक्षिप्त तैल दूसरे बर्तनमें अविच्छिन्न धार से प्रवाहित होता है, उसी प्रकार ध्येय का निरंतर स्मरण का नाम ध्यान है। जब इस प्रकार का भगवत-ध्यान प्राप्त हो जाता है तो सब बन्धन मुक्त हो जाते हैं। शास्त्र इस निरंतर स्मरण को मुक्तिका कारण बतलाते हैं। इस स्मृति अथवा संस्मरण और दर्शन में कोई अन्तर नहीं, क्योंकि सुदूरवर्ती तथा अत्यन्त सन्निहित उस परम पुरुषको देख लेता है, उसकी सारी हृदय-ग्रंथियों टूट जाती हैं, सब संशय विनष्ट हो जाते हैं, तथा सर्व कर्मक्षय हो जाता है।

 (नोट : उपरोक्त टेक्स्ट मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियां संभव हैं, अतः इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये.)


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