सुलभ वास्तु शास्त्र हिन्दी पुस्तक | Sulabh Vastu Shastra Hindi Book PDF

 

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सुलभ वास्तु शास्त्र हिन्दी ग्रन्थ के बारे में अधिक जानकारी | More details about Sulabh Vastu Shastra Hindi Book

इस ग्रन्थ का नाम है : सुलभ वास्तु शास्त्र | इस पुस्तक के मूल रचनाकार हैं : वास्तुवाचस्पति, रघुनाथ श्रीपाद देशपांडे. इस पुस्तक के भाषान्तरकार हैं: पं कृष्ण रमाकांत गोखले. इस पुस्तक की पीडीएफ फाइल का कुल आकार लगभग 9 MB हैं | इस पुस्तक में कुल 460 पृष्ठ हैं |

Name of the book is: Sulabh Vastu Shastra | This book is originally written by : Vastu-vachaspati, Raghunath Sripad Deshpandey. Translator of the book is : Pt. Krishna Ramakant Gokhle. Approximate size of the PDF file of this book is: 9 MB. This book has a total of 460 pages.

पुस्तक के लेखकपुस्तक की श्रेणीपुस्तक का साइजकुल पृष्ठ
रघुनाथ श्रीपाद देशपांडेधर्म, ज्योतिष9 MB460


पुस्तक से :

इश्वरकी रचनामे मनुष्य ये समस्त जीवधारियोका राजा सिद्ध हुआ है। अतः उसमें अन्य जीवोंकी अपेक्षा यह भाव विशेष रूपसे समृद्ध है। यही कारण है कि हम अपने घरकी अयोध कन्यकाओं तथा शिशुओं तकको मिट्टी के पहले और प्रसाद बनाते देखते हैं। विशेषकर दीवालीके समय तो भारतके प्रत्येक घरमें इसका प्रत्यक्ष प्रमाण देखनेको मिलता है।

 

हमारे यहाँ आज ऐसे ग्रंथोंकी खोज करना तथा उनका पुनरुद्धार करना अत्यन्त आवश्यक कार्य है। किन्तु कितने दुखकी बात है कि आज हमारा समाज उस ओरसे मुँह फेरे हुए है। यदि कोई एका दुका इन शास्त्रीय विषयों के अन्वेषणकी और झुकता भी है तो उसे समाजकी कोई सहायता नहीं मिलती। पाश्चात्य देशोंमें ऐसे लेखकों तथा प्रकाशकोंको यहाँका समाज तन-मन-धनसे सहायता पहुंचाने में तरपर रहता है। किन्तु यहाँ यदि किसीने वैसा प्रयत्न किया भी तो सिवाय आर्थिक और सामुदायिक हानिके उसे कोई काम नहीं होता। यही कारण है कि, ऐसे-ऐसे महत्वपूर्ण शास्त्रों का हमारे यहाँ कोई अन्वेषण और विकास नहीं होने पाता।

 


उस परमपिता परमात्माने ससार में स्थिरता उत्पन्न करनेके हेतु प्राणिमात्र में आत्मरक्षा और सुखप्राप्तिके भाव कूट-कूट कर भर दिये हैं संसार के समस्त जीव, चाहे वे जलचर या नभचर अथवा व्योमचर हो, सबके सब अपने जीवनकी अन्तिम घड़ी तक इन भावोंके भक्त बने रहते तथा उनके प्राप्तिको निरन्तर चेष्टा करते रहते हैं। तात्विक दृष्टि से विचार करने पर प्राणिमात्रको जिस प्रकार अपनी आत्मरक्षा और सुखप्राप्तिके लिये भोजन और वस्त्रकी नितान्त आवश्यकता प्रमाणित होती है उसी प्रकार उसे अपने लिये सर्वागीणरूप से उपयुक्त निवासस्थानकी भी आवश्यकता बोध होती है। यही कारण है कि हम कृमि, कीट-पतंगों से लेकर मनुष्योतक जिस तरह सबमे समान रूप से भोजन और पावरणकी खोजमें भटकते देखते हैं, उसी तरह उन्हें अपने लिये निवासस्थान बनाने, बनवाने अथवा प्राप्त करनेके प्रयत्नमें निरन्तर तल्लीन हुए देखते हैं।

 (नोट : उपरोक्त टेक्स्ट मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियां संभव हैं, अतः इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये.)


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