वेदांत दर्शन (ब्रह्मसूत्र) हिन्दी पुस्तक | Vedant Darshan (Brahmasutra) Hindi Book PDF

                                           

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वेदांत दर्शन हिंदी पुस्तक के बारे में अधिक जानकारी | More details about Vedant Darshan Hindi Book

इस पुस्तक का नाम है : वेदांत दर्शन | इस पुस्तक के लेखक हैं : महर्षि वेदव्यास | इस पुस्तक के प्रकाशक है : गीता प्रेस, गोरखपुर । इस पुस्तक की पीडीएफ फाइल का कुल आकार लगभग 185 MB हैं | पुस्तक में कुल 486 पृष्ठ हैं |

Name of the book is : Vedant Darshan. This book is written by : Maharshi Vedavyas. This book is published by : Gita Press, Gorakhpur. Approximate size of the PDF file of this book is 185 MB. This book has a total of 486 pages.

पुस्तक के लेखकपुस्तक की श्रेणीपुस्तक का साइजकुल पृष्ठ
महर्षि वेदव्यासभक्ति,धर्म,वेद185 MB486



पुस्तक से : 

महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित ब्रह्मसूत्र बड़ा ही महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इस ग्रंथ में थोड़े से शब्दों में परब्रह्म के स्वरूप का सांगोपांग निरूपण किया गया है और इसीलिये इसका नाम 'ब्रह्मसूत्र' है। यह ग्रन्थ वेद के चरम सिद्धान्त का निदर्शन कराता है, अतः इसे 'वेदान्त-दर्शन' भी कहा जाता हैं । वेद के अन्त या शिरो भाग ब्राह्मण, आरण्यक एवं उपनिषद् के सूक्ष्म तत्त्व का दिग्दर्शन कराने के कारण भी इसका उक्त नाम सार्थक है। वेद के पूर्व भागकी श्रुतियों में कर्मकाण्डका विषय है, उसकी समीक्षा आचार्य जैमिनि ने पूर्वमीमांसा सूत्रों में की है। संस्कृत भाषा में इस ग्रन्थ पर अनेक भाष्य एवं टीकाएँ उपलब्ध होती हैं, परंतु हिंदी में कोई सरल तथा सर्वसाधारण के समझने योग्य टीका नहीं थी।

 

ब्रह्मसूत्र अत्यन्त ही प्राचीन ग्रन्थ है। कुछ आधुनिक विद्वान् इसमें सांख्य, वैशेषिक, बौद्ध, जैन, पाशुपत और पांचरात्र आदि मतों की आलोचना देखकर इसे अर्वाचीन बताने का साहस करते हैं और बादरायण को वेदव्यास से भिन्न मानते हैं, परंतु उनकी यह धारणा पूरी तरह से भ्रमपूर्ण है। ब्रह्मसूत्र में जिन मतों की आलोचना की गयी है, वे प्रवाहरूप से अनादि हैं। वैदिक कालसे ही आस्तिक और नास्तिक मत का विवाद चला आता रहा है। इन प्रवाह रूपसे चले आते हुए विचारोंमेंसे किसी एक को अपनाकर ही अलग अलग दर्शनों का संकलन हुआ है।

 

 

पहले अध्याय में यह बताया गया है कि सभी वेदान्त वाक्यों का एक मात्र परब्रह्म के प्रतिपादन में ही अन्वय है; इसलिये उसका नाम 'समन्वयाध्याय' है,जबकि दूसरे अध्याय में सब प्रकार के विरोधाभासों का निराकरण किया गया है, इसलिये उसका नाम 'अविरोधाध्याय' है। तीसरे में परब्रह्म की प्राप्ति या साक्षात्कार के साधनभूत ब्रह्मविद्या तथा अन्य उपासनाओं के विषय में निर्णय किया गया है, अतः उसको 'साधनाध्याय' कहते हैं।

 (नोट : उपरोक्त टेक्स्ट मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियां संभव हैं, अतः इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये.)


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