श्री मालिनी विजयोत्तर तन्त्रम् हिन्दी पुस्तक | Sri Malini Vijayottara Tantra Hindi Book PDF

 

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श्री मालिनी विजयोत्तर तन्त्रम् हिन्दी पुस्तक के बारे में अधिक जानकारी | More details about Sri Malini Vijayottara Tantra Hindi Book



इस पुस्तक का नाम है : श्री मालिनी विजयोत्तर तन्त्रम् | इस पुस्तक के लेखक/संपादक हैं - डॉ. परमहंस मिश्र | इस पुस्तक के प्रकाशक हैं : सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी | इस पुस्तक की पीडीएफ फाइल का कुल आकार लगभग 47 MB हैं | इस पुस्तक में कुल 460 पृष्ठ हैं | इस पेज पर आगे "श्री मालिनी विजयोत्तर तन्त्रम्" पुस्तक का डाउनलोड लिंक दिया गया है जहाँ से आप इसे मुफ्त में डाउनलोड कर सकते हैं.

Name of the book is : Sri Malini Vijayottara Tantra. This book is written/edited by : Dr. Paramhansa Mishra | The book is published by : Sampurnananda Sanskrit Vishwavidyalaya, Varanasi. Approximate size of the PDF file of this book is 47 MB. This book has a total of 460 pages. The download link of the book "Sri Malini Vijayottara Tantra" has been given further on this page from where you can download it for free.


पुस्तक के संपादकपुस्तक की श्रेणीपुस्तक का साइजकुल पृष्ठ
डॉ. परमहंस मिश्र तंत्र मंत्र, धार्मिक47 MB460



पुस्तक से : 

पार्वतीजी के अनुसार योगमार्ग सिद्धयोगोश्वरी तन्त्रके माध्यमसे सुनाकर पुनः उसिको शिवने मालिनोविजयोत्तरतन्त्रके रूपमें संक्षेप में सुनाया था। पुनः बारह हजार मन्त्रोंमें उसका संक्षेप किया। वह भी अल्पबुद्धि लोगों द्वारा आत्म सात् नहीं हो पारहा था।

 

परमेश्वरने उसके उत्तरमें मन्त्रोंके लक्षणके सम्बन्धमें विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला था। इस उत्तरसे ऋषि बड़े चकित थे। कार्तिकेयसे पूछने पर उन्होंनेही ऋषियोंके सन्देह की निवृत्ति की। इस तरह पूरा श्रीमालिनीविजयोत्तरतन्त्र ऋषियोंको श्रवणगोचर हो सका।

 

वातावरण बड़ा ही पावन और प्रेरक था। अत्रि के नेत्रसे निष्पन्न चन्द्र यहाँ शिरोभाग पर विराजमान था। परमेश्वरकी इच्छासे वह ज्ञानका चन्द्र बनकर यहाँ रहस्य रश्मियोंको विकोर्ण कर रहा था। ज्ञानचन्द्रकी 'मालिनी विजयोत्तरतन्त्र' चतुर्दिक चैतन्यकी चेतनाका चमत्कार भर रही थीं।

 

 

सर्वशास्त्रार्थ को अपने रहस्यमय अन्तर्गर्भमें धारण करने वाली इस मालिनी विद्याके द्वारा परमेश्वर शिवने अघोर भट्टारक को बोध प्रदान किया था। इस विद्यासे संप्रबुद्ध होकर योनिवर्णों को बीज शक्तियों के प्रभावसे क्षुब्ध कर उसीके समान श्रुति वाले पृथक् वर्णोंको उत्पन्न कर दिया। इन्हीं वर्णोंसे साराका सारा वाङ्मय वेद, शास्त्र, उपनिषद्, स्मृति, पुराण आदि समुत्पन्न हुए और अनवरत उत्पन्न होते जारहे हैं।

 (नोट : उपरोक्त टेक्स्ट मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियां संभव हैं, अतः इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये.)


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