अष्टांग हृदयम् - डॉ. ब्रह्मानंद त्रिपाठी हिन्दी पुस्तक | Astanga Hrdayam - Dr Brahmanand Tripathi Hindi Book PDF


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अष्टांग हृदयम् हिन्दी पुस्तक के बारे में अधिक जानकारी | More details about Astanga Hrdayam Hindi Book



इस पुस्तक का नाम है : अष्टांग हृदयम् | इस पुस्तक के लेखक/संपादक हैं : डॉ. ब्रह्मानंद त्रिपाठी | इस पुस्तक के प्रकाशक हैं : चौखंबा संस्कृत प्रतिष्ठान, दिल्ली | इस पुस्तक की पीडीऍफ़ फाइल का कुल आकार लगभग 76 MB है | इस पुस्तक में कुल 387 पृष्ठ हैं | आगे इस पेज पर "अष्टांग हृदयम्" पुस्तक का डाउनलोड लिंक दिया गया है जहाँ से आप इसे मुफ्त में डाउनलोड कर सकते हैं.


Name of the book is : Astanga Hrdayam | This book is written/edited by : Dr Brahmanand Tripathi | This book is published by : Chaukhamba Sanskrit Pratishthan | PDF file of this book is of size 76 MB approximately. This book has a total of 387 pages. Download link of the book "Astanga Hrdayam" has been given further on this page from where you can download it for free.


पुस्तक के लेखकपुस्तक की श्रेणीपुस्तक का साइजकुल पृष्ठ
डॉ. ब्रह्मानंद त्रिपाठीधार्मिक76 MB387



पुस्तक से : 

चरकसंहिता में स्वास्थ्य रक्षाके सिद्धान्तों, रोगमुक्ति के उपायों तथा आयुर्वेदीय सद्वृत्त आदि विषयोंका जो विशद विवेचन हमे मिलता है, वो सभी दृष्टियोंसे अतिमहत्त्वपूर्ण है। अधिक क्या कहा जाय चरकोक्त के सभी सिद्धान्त त्रिकालाबाधित हैं।

 

१३वीं शताब्दी के रसरत्नसमुच्चय के रचयिता वाग्भट को ही यहाँ 'रसवाग्भट' के नामसे स्मरण किया गया है। इनके पित्ता का नाम भी सिंहगुप्त ही था। पिता पुत्र के नामकी समानता को आधार मानकर कुछ विद्वान् अष्टांगहृदय तथा रसरत्नसमुच्चय के रचयिताओं को एक ही मानते हैं।

 

लोकोपकार की दृष्टि से इस विस्तृत आयुर्वेदको बाद में आठ भागों में बांट दिया गया। तभी से इसे अष्टांग आयुर्वेद कहा जाता है। इनका विभाजन उस समय के महर्षियों ने किया था। बादमें में कालचक्र के अव्याहत आघात से एवं अनेक कारणों से ये अंग खण्डित होने के साथ ही लुप्त भी हो गये।

 

 

व्याकरणशास्त्र में इसका बहुत अधिक सम्मान है। वैसे भी लोक में इन्हें बुद्ध के बराबर सम्मान प्राप्त है। बौद्ध पुरुषोत्तमदेव कृत त्रिकाण्डशेष, भाषावृत्ति ग्रन्थोंका सर्वत्र समभावसे आदर है। इन शास्त्रकारोंका कहीं भी धर्म की ओर दुराग्रह परिलक्षित नहीं होता। क्योंकि शास्त्रचिन्तन में परम्परा कहीं भी बाधक नहीं होती। हर्षवर्धन शैव थे, राज्यवर्धन सौगत थे और ये दोनों आपस में सहोदर भाई थे।

 (नोट : उपरोक्त टेक्स्ट मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियां संभव हैं, अतः इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये.)


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