पुरुषार्थ चतुष्टय हिन्दी पुस्तक के बारे में अधिक जानकारी | More details about Purusharth Chatushtaya Hindi Book
इस पुस्तक का नाम है : पुरुषार्थ चतुष्टय | इस पुस्तक के लेखक/संपादक हैं : प्रेमवल्लभ त्रिपाठी | इस पुस्तक के प्रकाशक हैं : आनंदकानन प्रेस, वाराणसी | इस पुस्तक की पीडीऍफ़ फाइल का कुल आकार लगभग 160 MB है | इस पुस्तक में कुल 444 पृष्ठ हैं | आगे इस पेज पर "पुरुषार्थ चतुष्टय" पुस्तक का डाउनलोड लिंक दिया गया है जहाँ से आप इसे मुफ्त में डाउनलोड कर सकते हैं.
Name of the book is : Purusharth Chatushtaya | This book is authored/edited by : Premvallabh Tripathi | This book is published by : Anandkanan Press, Varanasi | PDF file of this book is of size 160 MB approximately. This book has a total of 444 pages. Download link of the book "Purusharth Chatushtaya" has been given further on this page from where you can download it for free.
पुस्तक के संपादक | पुस्तक की श्रेणी | पुस्तक का साइज | कुल पृष्ठ |
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प्रेमवल्लभ त्रिपाठी | धर्म, प्रेरक | 160 MB | 444 |
पुस्तक से :
इस दुर्नीति का अवलम्बन करेगा। जो जो भी षड्यन्त्र हो सकते हैं, कुर्सी पाने के लिए करेगा। सबकुछ वह स्वार्थके लिए ही करेगा- उसे न परार्थ की चिन्ता है, न परमार्थ की ही। दस बार दल बदलेगा। चौबीस घन्टे के भीतर ही एक के बाद दूसरा दल बदलने के उदाहरण हो चुके हैं और हो रहे हैं.
इस उच्चतम उद्देश्य से भारतको स्वतन्त्र करनेके लिए देशके सभी वरिष्ठ नेताओं के सत्प्रयाससे अहिंसात्मक आन्दोलन प्रारम्भ हुआ और वह उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया। प्रत्येक नर-नारी के मनमें स्वाभिमान और स्वावलम्बनकी भावना जागृत हुई । शिक्षण संस्थाओं ने जनमानस को और अधिक उत्तेजित किया। संस्कृतज्ञ समाज भी इससे अछूता न रहा।
सनातनधर्मी समाज का तो इस ग्रन्थसे अत्यधिक उपकार होगा ही। इतर जन भी निःसन्देह इस पुस्तकके द्वारा सनातन धर्मके मानवोपकारक, समाजोद्वारक मूलभूत सिद्धान्तों का पुष्कल परिचय प्राप्त करेंगे और अपने अपने धर्मविषयक ऐसेही ग्रन्थोंकी रचना को प्रेरणा भी ग्रहण करेंगे। ऐसे स्थायी महत्व के बहुमूल्य ग्रन्थ में मेरी ओर से इन दो शब्दोंको लिखना कोरी अनधिकार चेष्टा है।
आज प्राय: सर्वत्र सभी संस्थाओंमें, सभी विभागोंमें, एवं सर्वोच्च शिक्षण संस्थाओंमें विशेषतः विश्वविद्यालयोंकी कार्यकारिणी परिषदों में गुणवत्ताके आधार पर चुने गये सदस्य लोग 'अयं निजः परो वा" इस भावनासे दूषित होकर तत्-तत् स्थानोंके, उच्च-उच्चपदों के चयन में "राईको पर्वत और पर्वतको राई" बना देते हैं.
(नोट : उपरोक्त टेक्स्ट मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियां संभव हैं, अतः इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये.)
डाउनलोड लिंक :
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