सांख्य दर्शन पर्यालोचन हिन्दी पुस्तक पीडीऍफ़ | Sankhya Darshan Paryalochan Hindi Book PDF



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सांख्य दर्शन पर्यालोचन हिन्दी पुस्तक के बारे में अधिक जानकारी | More details about Sankhya Darshan Paryalochan Hindi Book



इस पुस्तक का नाम है : सांख्य दर्शन पर्यालोचन | इस पुस्तक के लेखक/संपादक हैं : आद्याप्रसाद मिश्र | इस पुस्तक के प्रकाशक हैं : राष्ट्रीय संस्कृत संस्थानम, नई दिल्ली | इस पुस्तक की पीडीऍफ़ फाइल का कुल आकार लगभग 59 MB है | इस पुस्तक में कुल 260 पृष्ठ हैं | आगे इस पेज पर "सांख्य दर्शन पर्यालोचन" पुस्तक का डाउनलोड लिंक दिया गया है जहाँ से आप इसे मुफ्त में डाउनलोड कर सकते हैं.


Name of the book is : Sankhya Darshan Paryalochan | This book is authored/edited by : Aadyaprasad Mishra | This book is published by : Rashtriya Sanskrit Sansthanam, New Delhi | PDF file of this book is of size 59 MB approximately. This book has a total of 260 pages. Download link of the book "Sankhya Darshan Paryalochan" has been given further on this page from where you can download it for free.


पुस्तक के संपादकपुस्तक की श्रेणीपुस्तक का साइजकुल पृष्ठ
 आद्याप्रसाद मिश्रधर्म, भक्ति 59 MB260



पुस्तक से : 

प्रस्तुत सांख्यदर्शन पर्यालोचन नामक यह ग्रन्थ प्रख्यात दर्शनाचार्य, राष्ट्रपति सम्मानित, इलाहाबाद विश्वविद्यालयके पूर्व कुलपति प्रो० आद्याप्रसाद मिश्र द्वारा प्रणीत है। इसमें विद्वान् लेखकने सांख्यप्रवर्तकों एवं उनकी कृतियों का विश्लेषण करते हुए प्राच्य-पाश्चात्य विद्वानों के मन्तव्यों के सन्दर्भमें सांख्यशास्त्र के गूढ़ तत्त्व पर प्रकाश डाला है।

 

न हि साङ्ख्यसमं ज्ञानम् - महाभारत की सांख्य विषयक यह सूक्ति सर्वविदित है। किन्तु यह जिज्ञासा तो स्वभावत: मन में उठती ही है कि ऐसा क्यों? यदि यह तथ्य सर्वथा निश्चित होता कि यह वचन भगवान् कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास का ही है, तो शायद यह शङ्का मन में न उठती।

 

मनुष्य स्वाभाव से ही मननशील प्राणी है। अतः मानवीय विचारों की प्रक्रिया उतनी ही पुरानी है, जितनी सृष्टि। स्वभावके अतिरिक्त मानव की परिस्थितियाँ एवं उसके चारोंओर का वातावरण भी उसको कुछ-न-कुछ सोचने के लिए सदा प्रेरित करते रहते हैं। सोचने या मनन करने का यह क्रम जाति और व्यक्ति दोनों ही में चलता रहता है। इसीके फलस्वरूप दोनों ही आगे बढ़ते हैं।

 

 

अब इस विवेचन के प्रकाश में यह तो कहा ही जा सकता है कि पूर्व उठाई गई सांख्यज्ञान-विषयक शङ्का निराधार या अस्वाभाविक नहीं है। सांख्य ज्ञान क्यों अन्यशास्त्रोपदिष्ट ज्ञानों की अपेक्षा अतिशयी या बढ़कर अथवा श्रेयस्कर है? सांख्यके अत्यन्त प्रसिद्ध आचार्य ईश्वर कृष्णने भी इसे अपनी सांख्यकारिका के उत्तरार्धमें तद्विपरीतः श्रेयान् कहा है।

 (नोट : उपरोक्त टेक्स्ट मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियां संभव हैं, अतः इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये.)


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