तैत्तिरीय उपनिषद ग्रन्थ पीडीऍफ़ | Taittiriya Upanishad Book PDF

 


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तैत्तिरीय उपनिषद हिन्दी पुस्तक के बारे में अधिक जानकारी | More details about Taittiriya Upanishad Hindi Book



इस पुस्तक का नाम है : तैत्तिरीय उपनिषद | इस पुस्तक के भाष्यकार/संपादक हैं : जगदगुरु श्रीरामानंदाचार्य स्वामी रामभद्राचार्य जी महाराज | इस पुस्तक के प्रकाशक हैं : श्री तुलसीपीठ सेवा न्यास, श्रीचित्रकूटधाम | इस पुस्तक की पीडीऍफ़ फाइल का कुल आकार लगभग 6 MB है | इस पुस्तक में कुल 88 पृष्ठ हैं | आगे इस पेज पर "तैत्तिरीय उपनिषद" पुस्तक का डाउनलोड लिंक दिया गया है जहाँ से आप इसे मुफ्त में डाउनलोड कर सकते हैं.


Name of the book is : Taittiriya Upanishad | This book is translated/edited by : Jagadguru Shriramanandacharya Swami Rambhadracharya ji Maharaj | This book is published by : Shri Tulsipeeth Sevanyas, Shrichitrakoot Dham | PDF file of this book is of size 6 MB approximately. This book has a total of 88 pages. Download link of the book "Taittiriya Upanishad" has been given further on this page from where you can download it for free.


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श्रीरामभद्राचार्य जी महाराज धर्म, अध्यात्म 6 MB88



पुस्तक से : 

कृष्ण यजुर्वेदीय तैत्तिरीय शाखामें पढ़ी जाने के कारण इसे तैत्तिरीय उपनिषद कहते हैं। इसके प्रथम अध्यायमें वैदिक शिक्षा के श्रौत सिद्धान्तों का वर्णन किया गया है। पुनः ब्रह्मके स्वरूप लक्षण, तटस्थ लक्षण का भी बहुत मनोवैज्ञानिक वर्णन है। भृगुवल्लीमें परमेश्वरके तटस्थ लक्षण का संघटन किया गया है तथा ब्रह्मानन्दवल्लीमें प्रभु के आनन्दस्वरूप का निर्वचन है।

 

प्राचीनकाल में धर्माचार्यों की यह परम्परा रही है कि व्यक्ति किसी भी सम्प्रदायके आचार्यपद पर प्रतिष्ठित किया जाता था, जो उपनिषद्, गौता तथा ब्रह्मसूत्र पर अपने सम्प्रदाय के सिद्धान्तानुसार वैदुष्यपूर्ण वैदिक भाष्य प्रस्तुत करता था। जिसे हम प्रस्थानत्रयी भाष्य कहते हैं, जैसे शंकराचार्य आदि।

 

नी गुरुशिष्ययोः यशः सह सहैव भवतु। पुनश्च नौ आवयोः ब्रह्मवर्चसं ब्रह्मतेजः सहैव भवतु। अतः एतस्मात् मंगलाशासनादनन्तरं संहितायाः सम्यक् हितं यन्य तस्याः सन्धिप्रक्रियायाः उपनिषदं रहस्यविद्यां पञ्चसु अधिकरणेषु व्याख्यास्यामः प्रवक्ष्यामः तत्र अधिलोकादयः पञ्चसंहितालोके इत्यधिलोकं विभक्त्यार्थेऽव्ययीभावः।

 

 

अत्र यशः शब्दः यशस्विपर: जनशब्दच लोकवाची हे भगवान्। त्वत्कृपया अहं जने लोके यश:यशस्वि असानि भवानि वसीयसः धनवतः श्रयान् प्रशस्यतरो भवानि । अत्र वसीयस इत्यस्य वस्यसः इति रूपम् । व्यत्ययात् ईकारस्य लोपः हे भग। भगानि सन्त्यस्मिन् इति भगः तत्सद्धौ हे भग हे पूजनीय तं त्वा प्रविशानि, अत्र इच्छायें लोट् स च प्रार्थनारूपः |

 (नोट : उपरोक्त टेक्स्ट मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियां संभव हैं, अतः इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये.)


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