व्याकरण महाभाष्य पुस्तक पीडीऍफ़ | Vyakaran Mahabhashya Book PDF

   

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व्याकरण महाभाष्य हिन्दी पुस्तक के बारे में अधिक जानकारी | More details about Vyakaran Mahabhashya Hindi Book



इस पुस्तक का नाम है : व्याकरण महाभाष्य | इस पुस्तक के मूल लेखक/संपादक हैं : महर्षि पतंजलि | इस पुस्तक के अनुवादक/संपादक हैं : चारुदेव शास्त्री | इस पुस्तक के प्रकाशक हैं : श्री मोतीलाल बनारसीदास, जवाहर नगर, दिल्ली | इस पुस्तक की पीडीऍफ़ फाइल का कुल आकार लगभग 35 MB है | इस पुस्तक में कुल 757 पृष्ठ हैं | आगे इस पेज पर "व्याकरण महाभाष्य" पुस्तक का डाउनलोड लिंक दिया गया है जहाँ से आप इसे मुफ्त में डाउनलोड कर सकते हैं.


Name of the book is : Vyakaran Mahabhashya | This book is originally written by : Maharshi Patanjali | This book is translated/edited by : Charudev Shastri | This book is published by : Shri Motilal Banarasidas, Jawahar Nagar, Delhi | PDF file of this book is of size 35 MB approximately. This book has a total of 757 pages. Download link of the book "Vyakaran Mahabhashya" has been given further on this page from where you can download it for free.


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चारुदेव शास्त्रीसंस्कृत, व्याकरण, साहित्य 35 MB757



पुस्तक से : 

यह अनुवाद किस लिये हुआ है। इस लिये नहीं कि महाभाष्यकी भाषा क्लिष्ट है, दूर व्यवहित अन्वय आदि के कारण दुर्बोध है। भाषा इतनी सरल, सुन्दर तथा मधुर है जितनी कि कभी हो सकती है। वस्तुतः इतने प्रसाद और माधुर्य भरे कुछेक ही ग्रन्थ समस्त संस्कृत साहित्यमें मिलते हैं।

 

स्थान-स्थान पर भाष्य के पौर्वापर्य की संगति दिखाने के लिये तथा भाष्यकारके अभिप्राय के स्पष्टीकरण के लिये विस्तृत टिप्पणी दिये हैं। व्याख्येय पदों का अर्थ निर्देश तथा विग्रह आदि भी दिया है। इसीसे इस कृतिकी कृतार्थता है, अन्यथा भाषान्तरमात्र व्यर्थ सा होता।

 

लोकिक का अर्थ है लोक में प्रसिद्ध. लोक से यहा सर्वलोक अभिप्रेत है। साधु शब्द लोक में सर्वत्र प्रसिद्ध होते है और अपभ्रंश कहीं-कहीं. सो यहां सर्वलोक प्रसिद्ध साधु शब्दों का अनुशासन है, अपभ्रंशों का नहीं। लौकिक वाग्व्यवहार में पदानुपूर्वी नियत नहीं होती, वेदवाक्यों मे पदानुपूर्वी नियत है, वह बदली नहीं जा सकती ।

 

 

भाष्य में जहा अथाह गहराई है वहाँ रचना सौन्दर्य के कारण अत्यन्त प्रांजलता है। इत्यम्भूत भाष्यमें असंस्कृत (अपरिपक्क) बुद्धिवालोंको भाष्य के आशय का निश्चित ज्ञान न हो सका। यदि भर्तृहरिके समय में तथा उससे पूर्व ऐसी अवस्था थी तो आज यदि भाष्याशय की दुर्बोधताकी अनुभूति हो तो क्या आश्चर्य है। अतः हमने भाषान्तर करते हुए सर्वत्र भाष्याशयको स्पष्ट करने का यत्न किया है।

 (नोट : उपरोक्त टेक्स्ट मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियां संभव हैं, अतः इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये.)


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