जयशंकर प्रसाद की श्रेष्ठ कहानियां हिन्दी पुस्तक | Jaishankar Prasad Ki Shreshth Kahaniyan Hindi Book PDF


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जयशंकर प्रसाद की श्रेष्ठ कहानियां हिन्दी पुस्तक के बारे में अधिक जानकारी | More details about Jaishankar Prasad Ki Shreshth Kahaniyan Hindi Book



इस पुस्तक का नाम है : जयशंकर प्रसाद की श्रेष्ठ कहानियां | इस पुस्तक के लेखक/संपादक हैं : जयशंकर प्रसाद | इस पुस्तक के प्रकाशक हैं : राजपाल एण्ड सन्ज, दिल्ली | इस पुस्तक की पीडीऍफ़ फाइल का कुल आकार लगभग 2 MB है | इस पुस्तक में कुल 183 पृष्ठ हैं | आगे इस पेज पर "जयशंकर प्रसाद की श्रेष्ठ कहानियां" पुस्तक का डाउनलोड लिंक दिया गया है जहाँ से आप इसे मुफ्त में डाउनलोड कर सकते हैं.


Name of the book is : Jaishankar Prasad Ki Shreshth Kahaniyan | This book is written/edited by : Jaishankar Prasad | This book is published by : Rajpal And Sons, Delhi | PDF file of this book is of size 2 MB approximately. This book has a total of 183 pages. Download link of the book "Jaishankar Prasad Ki Shreshth Kahaniyan" has been given further on this page from where you can download it for free.


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जयशंकर प्रसादकहानी2 MB183



पुस्तक से : 

विचारने को कुछ भी उसके पास न था। केवल स्वामी की आशा में वह उत्कंठित हो बैठी थी। दरवाजा खटका, वह उठी, चतुर दासीसे भी अच्छी तरह उसने स्वामी की अभ्यर्थना, सेवा और सत्कार करने में अपनेको लगा दिया। मोहन चुपचाप अपने ग्रासों के साथ वाग्युद्ध और दन्तघर्षण करने लगा।

 

प्रकाश अपने आपे में नही रह पाया। वह उस देहात में सबसे बड़ा विलासी बन बैठा। उसने तारा के पहले घर से कोस-भर दूर श्यामा की बारीको अच्छी तरह से सजाया। उसका कच्चा घर तोड़कर बंगला बना दिया। अमराई में अच्छी सड़कें और क्यारियाँ दौड़ने लगीं। यहीं प्रकाश बाबूकी बैठक बैठाई गई।

 

बाध्य होकर मोहन को पान खाना पड़ा। अब मनोरमा उनका पैर दबाने बैठी। वेश्या तिरस्कृत मोहन घबरा उठा। इस सहयोगसे क्या बस चले। उसने मन में विचारा कि मनोरमाको मैंने ही तो ऐसा बनाना चाहा था। अब वह ऐसी तो मुझे अब पछतावा क्यों है? इसके चरित्रका यह अंश क्यों नहीं रुचता।

 

 

मैं चंपा की एक क्षत्रिय बालिका हूँ। वो इसी के यहाँ प्रहरीका काम किया करते थे। माता का देहावसान हो जाने पर मैं भी पिता के साथ ही रहने लगी थी। अब समुद्र ही मेरा घर है। आक्रमण के दौरान मेरे पिता ने ही दस्युओंको मारकर समाधि ली थी। मैं इस नील नभ के नीचे, नील जलनिधि के ऊपर, एक भयानक अनन्ततामें अनाथ हूँ। मणिभद्र ने मुझसे एक दिन घृणित प्रस्ताव किया। मैंने उसे गालियाँ भी सुनाईं।

 (नोट : उपरोक्त टेक्स्ट मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियां संभव हैं, अतः इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये.)


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