प्रतिमा कलानिधि हिन्दी पुस्तक | Pratima Kalanidhi Hindi Book PDF


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प्रतिमा कलानिधि हिन्दी पुस्तक के बारे में अधिक जानकारी | More details about Pratima Kalanidhi Hindi Book



इस पुस्तक का नाम है : प्रतिमा कलानिधि | इस पुस्तक के लेखक/संपादक हैं : पद्मश्री प्रभाशंकर ओ. सोमपुरा | इस पुस्तक के प्रकाशक हैं : श्री बलवंत राय प्रभाशंकर सोमपुरा एण्ड ब्रदर्स, अहमदाबाद | इस पुस्तक की पीडीऍफ़ फाइल का कुल आकार लगभग 7 MB है | इस पुस्तक में कुल 138 पृष्ठ हैं | आगे इस पेज पर "प्रतिमा कलानिधि" पुस्तक का डाउनलोड लिंक दिया गया है जहाँ से आप इसे मुफ्त में डाउनलोड कर सकते हैं.


Name of the book is : Pratima Kalanidhi | This book is written/edited by : Padmashri Prabhashankar O. Sompura | This book is published by : Shri Balwant Rai Prabhashankar Sompura & Brothers, Ahmedabad | PDF file of this book is of size 7 MB approximately. This book has a total of 138 pages. Download link of the book "Pratima Kalanidhi" has been given further on this page from where you can download it for free.


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प्रभाशंकर ओ. सोमपुराकला7 MB138



पुस्तक से : 

एकाग्रता की सफलता के लिए मूर्ति को एक उपयोगी युक्ति माना गया है। पूजा के लिए मूर्तिको सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व के रूप में स्वीकार किया गया। प्राचीन काल मे निराकार लिंगोपासना की प्रथा बहुत प्रचलित थी। अंतरीक्षीय पुरुष और प्रकृतिको सृजन के सार्वभौम आदि कारणों के रूप में जाना जाता है।

 

पिछले ६०० वर्षों मे इस शैली के किसी भी मंदिर का निर्माण कार्य नहीं हुआ है। भगवानकी कृपा से इस निर्माण शैली का ज्ञान हमारे परीवार में सुरक्षित रहा, तथा सरदार वल्लभभाई पटेल के आदेशानुमार, मैं सोमनाथमें श्री सोमनाथ साधार महाप्रासाद का निर्माण करने में सफल हो पाया। इस निर्माण शैलीकी पूरी जानकारी मुझे प्राप्त थी।

 

यह कहना अशिष्टता प्रतीत हो सकती है, फिर भी मैं अपने पुत्र धनवतराय को धन्यवाद देना चाहता हूँ कि उसने अनेक ग्रंथों का अध्ययन कर उनके संदर्भ मुझे उपलब्ध किये। पुस्तकमें रह गयी त्रुटियों के लिए विद्वज्जन तथा स्थापत्य कलाकार मित्र मुझे क्षमा करेंगे, क्योंकि कला का क्षत्र असीमित और अनंत है और उसके विषयमें बहुत कुछ लिखा जा सकता है।

 

 

आगे चलकर शिल्पियो ने ग्रंथो का अध्ययन छोड़ कर, पैतृक ज्ञान पर ही निर्भर रहना आरंभ कर दिया। फलस्वरूप, उस ज्ञानका महत्व कम होने लगा, जिसे वाचन द्वारा शिष्यो तक पहुँचाया जाता था। उसके अर्थ शिल्पियो को भ्रममे डालने लगे। हस्तलिखित मूल ग्रंथो को पारिवारिक तिजोरियो मे सुरक्षित रखा जाने लगा, तथा उन्हें भी पारिवारिक सम्पतिकी उत्तराधिकारियों में विभाजित किया जाने लगा। इस प्रकार ये बंटते चले गये।

 (नोट : उपरोक्त टेक्स्ट मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियां संभव हैं, अतः इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये.)


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