सर्व दर्शन संग्रह संस्कृत पुस्तक | Sarv Darshan Sangraha Sanskrit Book PDF


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सर्व दर्शन संग्रह संस्कृत पुस्तक के बारे में अधिक जानकारी | More details about Sarv Darshan Sangraha Sanskrit Book



इस पुस्तक का नाम है : सर्व दर्शन संग्रह | इस पुस्तक के लेखक/संपादक हैं : श्री माधवाचार्य | इस पुस्तक के प्रकाशक हैं : निर्णय सागर मुद्रणालय, मुंबई | इस पुस्तक की पीडीऍफ़ फाइल का कुल आकार लगभग 49 MB है | इस पुस्तक में कुल 706 पृष्ठ हैं | आगे इस पेज पर "सर्व दर्शन संग्रह" पुस्तक का डाउनलोड लिंक दिया गया है जहाँ से आप इसे मुफ्त में डाउनलोड कर सकते हैं.


Name of the book is : Sarv Darshan Sangraha | This book is written/edited by : Shri Madhavacharya | This book is published by : Nirnay Sagar Mudranalaya, Mumbai | PDF file of this book is of size 49 MB approximately. This book has a total of 706 pages. Download link of the book "Sarv Darshan Sangraha" has been given further on this page from where you can download it for free.


पुस्तक के संपादकपुस्तक की श्रेणीपुस्तक का साइजकुल पृष्ठ
श्री माधवाचार्याधर्म49 MB706



पुस्तक से : 

कदाचिद्देशान्तरस्थः पुत्रार्थी नृपो दत्तकं पुत्रं परिजिघृक्षुस्तादृशं स्वपुत्रत्वयोग्यं गुणान्वितं बालकं समन्वेषयन्यह च्छया तत्र समागतो देवदत्तं दृष्ट्वा संतुष्टान्तरङ्गस्तत्पितरं पुत्रं ययाचे। पिता पुत्रहितैकतत्परः पुत्रवियोगे भाविनी कष्टामपि स्वावस्थामनाल क्षयन्पुत्रं राज्ञे समर्पयामास।

 

अनाहार्यारोपस्य भ्रममूलकत्वात्। श्रुतेस्तु न कथमपि भ्रमः कल्पयितुं शक्यते श्रुतिप्रामाण्यवादिभिः। द्वितीयपक्षे चाद्वैतस्य सत्यत्वमङ्गीकृत्य द्वैतस्यारोपितत्वे नाहार्यारोप एव स्वीकार्यो भवति। आहार्यारोपाङ्गीकारे तु प्रत्यक्षप्रमाणप्रती द्वैतं जीवात्ममिर्हठात्कल्पित मित्युक्तं स्यात्।

 

नियम्यसापेक्षनियन्तृत्वादिवत्। बाघे ह्युपजीव कस्यैवाभाव इत्युपजीव्यस्य स्वरूपहानिरेव स्यात्। तदैव ह्युप जीव्यस्योपजीव्यत्वं यद्युपजीव्यत्व निरूपक मन्यदुपजीवकं स्यात्। तथा चोपजीव्योपजीव नैकमन्यस्य बाध्यं एवमेव च प्राणप्रदप्राणनीय विषयेनुप्राहकानुप्राह्यविषये च बोध्यम्।

 

 

तत्रानाहार्यारोपश्च भ्रम एवेति तत्रारोपितस्य मिथ्यात्वमेवेति तादृशारो पितार्थबोधकस्य प्रमाणस्याप्रामाण्यमेव। आहार्यारोपस्थले तु तथा। यद्यप्याहार्यारोपस्थले प्यारोपितार्थस्या धिष्ठानप्रदेशेऽसत्त्वमेव तथाप्यारोपि तवस्तुगतगुणसद्दशगुण कत्वादिमधिष्ठानस्य बोधयत्प्रमाणभूतं वचनं नाप्रमाणं भवितुमर्हति।

 (नोट : उपरोक्त टेक्स्ट मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियां संभव हैं, अतः इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये.)


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