श्री सत्य नारायण व्रत कथा (संस्कृत-हिन्दी) पुस्तक पीडीऍफ़ | Shri Satya Narayan Vrat Katha (Sanskrit-Hindi) Book PDF


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श्री सत्य नारायण व्रत कथा पुस्तक के बारे में अधिक जानकारी | More details about Shri Satya Narayan Vrat Katha Book



इस ग्रन्थ का नाम है : श्री सत्य नारायण व्रत कथा | इस ग्रन्थ के संपादक/अनुवादक है: आचार्य धीरेन्द्र | इस पुस्तक के प्रकाशक हैं : कान्हा दर्शन धार्मिक प्रकाशन | इस पुस्तक की पीडीऍफ़ फाइल का कुल आकार लगभग 1 MB है | इस पुस्तक में कुल 99 पृष्ठ हैं | आगे इस पेज पर "श्री सत्य नारायण व्रत कथा" पुस्तक का डाउनलोड लिंक दिया गया है जहाँ से आप इसे मुफ्त में डाउनलोड कर सकते हैं.


Name of the book is : Shri Satya Narayan Vrat Katha | Editor/Commentator of this book is : Acharya Dhirendra | This book is published by : Kanha Darshan Dharmik Prakashan | PDF file of this book is of size 1 MB approximately. This book has a total of 99 pages. Download link of the book "Shri Satya Narayan Vrat Katha" has been given further on this page from where you can download it for free.


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आचार्य धीरेन्द्रधर्म, भक्ति1 MB99



पुस्तक से : 

जो भी कामना की जाती है, उसके मूल में एक संकल्प रहता है. यज्ञ भी संकल्प से संभव होते हैं, व्रत नियम और धर्म सभी संकल्पजनित होते हैं। संकल्प ही कार्य में प्रधान होता है इसलिये दीर्घकाल तक उपासना करने योग्य कार्यकलाप को जो एक निश्चित संकल्प के साथ किया जाये उसे व्रत कहा गया है।

 

व्रतोपवास का न केवल दृष्ट फल ही है अपितु इससे कर्ता का शुभ अदृष्ट फल भी बनता है, दृढ़ निश्चय का संस्कृत में संकल्प नाम दिया गया है। किसी भी व्रत का अनुष्ठान करने अथवा नियम लेने के लिये दृढ़ इच्छाशक्ति की आवश्यकता होती है। हमारे यहाँ इसीलिये किसी भी शुभ कार्य को प्रारंभ करते समय संकल्प का विधान बनाया गया है।

 

समीपता बोधक अव्यय है। इसलिये उपवास का शाब्दिक अर्थ होता है समीप में वास. अभिप्राय यह है कि उपवास के द्वारा साधक अपने इष्टकी निकटता का अनुभव करे। भौतिक धरातल, आगे आध्यात्मिक स्तर का अनुभव करे। मन और इन्द्रियों से आगे आत्म-साक्षात्कार की ओर अग्रसर हो विधिपूर्वक उवपास करने से शरीरके अनेक विकार दूर होते हैं।

 

 

विचार शक्ति सद्भावना से पूर्ण होती है। मन की एकाग्रता से ईश्वरके चिन्तन, मन में अधिक समय तक लीन रहने की इच्छा जाग्रत होती है। व्रतोपवास धर्मके अङ्गरूप ही है, व्रतोपवास में दस लक्षणात्मक धर्मस्वरूप का अनुपालन अति आवश्यक है अन्यथा केवल व्रतालाभ हो होगा।

 (नोट : उपरोक्त टेक्स्ट मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियां संभव हैं, अतः इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये.)


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