श्री विद्या महार्णव हिन्दी पुस्तक | Shri Vidya Maharnava Hindi Book PDF


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श्री विद्या महार्णव हिन्दी पुस्तक के बारे में अधिक जानकारी | More details about Shri Vidya Maharnava Hindi Book



इस पुस्तक का नाम है : श्री विद्या महार्णव | इस पुस्तक के लेखक/संपादक हैं : श्री ज्ञानानन्देन्द्र सरस्वती | इस पुस्तक के प्रकाशक हैं : श्री विद्या विमर्श पीठ, वाराणसी | इस पुस्तक की पीडीऍफ़ फाइल का कुल आकार लगभग 118 MB है | इस पुस्तक में कुल 492 पृष्ठ हैं | आगे इस पेज पर "श्री विद्या महार्णव" पुस्तक का डाउनलोड लिंक दिया गया है जहाँ से आप इसे मुफ्त में डाउनलोड कर सकते हैं.


Name of the book is : Shri Vidya Maharnava | This book is written/edited by : Shri Gyananandendra Saraswati | This book is published by : Shri Vidya Vimarsha Peeth, Varanasi | PDF file of this book is of size 118 MB approximately. This book has a total of 492 pages. Download link of the book "Shri Vidya Maharnava" has been given further on this page from where you can download it for free.


पुस्तक के लेखकपुस्तक की श्रेणीपुस्तक का साइजकुल पृष्ठ
श्री ज्ञानानन्देन्द्र सरस्वतीधार्मिक118 MB492



पुस्तक से : 

तथापि धर्मादिविषयेऽपौरुषेयत्वाद्वेदः स्वतन्त्रं प्रमाणम्। स्मृत्यादीनि वेदमूलकतया। यद्यपीदानीं धर्ममूलभूती वेदोऽखिलीस्माभिर्न लभ्यते चेदपि मन्वादिस्मृतिकर्तॄणामुपलब्ध इत्यत्र। तथाचापस्तम्बर तेषामुत्सनाः पाठाः प्रयोगादनुमीयन्ते इति। श्रुतिस्मृति सदाचार क्रमाद्धमादिप्रमाणानि।

 

अतएव सर्वसंप्रदायावलम्बिभिरपि पुराणादिषन्ते गोब्राह्मणेभ्यः शुभमस्तु नित्यं इति प्रथमं प्रकृतिपुरुषात्मकानां गोब्राह्मणानां कृतेशुभं संप्रार्थ्य, ततः समस्ताः सुखिनो भवन्तु इति प्रार्थ्यते। गोब्राह्मणानां लोकान्तर्भूतत्वेपि विशिष्य तेषां शुभप्रार्थनायां प्रथमं कृतायामन्येषां सर्वेषां लोकानां स्वत एव सौख्यं भवेदिति प्रत्ययः।

 

सामान्यतः जगति देवस्य पत्नीं शक्तिरूपेणैव व्यवहरन्ति हन्तासुराणामभवच्छचीभिः। अत्र सायण भाष्यं सचेन्द्रः शचीभिः स्वकीयशक्तिभि असुराणां हन्ताभवत्। नवमी अनुष्ठानरहितं मानुष्ठान कृतवती। दशमी अस्मदनुग्रहेस्थैर्यं व्याप्तवती। मुख्याः पंचोषसः पञ्चव्युष्टयइत्युच्यन्ते। ता अनु पंचात्मकं सर्वमिदमुत्पनं किमिति चेदुच्यते।

 

 

मणेः प्रभा यथा पृथक् कर्तुं शक्यते तथैव शिवात् तच्छक्तिरपि पार्थक्यं भजते समस्तं विश्वप्रपञ्चमिदं प्रकाशविमर्शयोः स्पन्दनरूपम् यथा तरङ्गं समुद्रादभिन्नं तथैव विश्वप्रपञ्चमपि परमतत्त्वादभिन्नमेव। त्रैपुरसिद्धान्तानुसार मेकस्यखण्ड सजातीय विजातीयस्वगतभेदशून्यस्य परब्रह्मणः स्वप्नजाग्रत सुषुप्तित्रयावस्थायाः साक्षिणी तुरीयापरिचितिः एव श्रीविद्या।

 (नोट : उपरोक्त टेक्स्ट मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियां संभव हैं, अतः इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये.)


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