वास्तु कलानिधि हिन्दी पुस्तक | Vastu Kalanidhi Hindi Book PDF


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वास्तु कलानिधि हिन्दी पुस्तक के बारे में अधिक जानकारी | More details about Vastu Kalanidhi Hindi Book



इस पुस्तक का नाम है : वास्तु कलानिधि | इस पुस्तक के लेखक/संपादक हैं : पद्मश्री प्रभाशंकर ओ. सोमपुरा | इस पुस्तक के प्रकाशक हैं : श्री बलवंत राय प्रभाशंकर सोमपुरा एण्ड ब्रदर्स, अहमदाबाद | इस पुस्तक की पीडीऍफ़ फाइल का कुल आकार लगभग 15 MB है | इस पुस्तक में कुल 246 पृष्ठ हैं | आगे इस पेज पर "वास्तु कलानिधि" पुस्तक का डाउनलोड लिंक दिया गया है जहाँ से आप इसे मुफ्त में डाउनलोड कर सकते हैं.


Name of the book is : Vastu Kalanidhi | This book is written/edited by : Padmashri Prabhashankar O. Sompura | This book is published by : Shri Balwant Rai Prabhashankar Sompura & Brothers, Ahmedabad | PDF file of this book is of size 15 MB approximately. This book has a total of 246 pages. Download link of the book "Vastu Kalanidhi" has been given further on this page from where you can download it for free.


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प्रभाशंकर ओ. सोमपुराज्योतिष15 MB246



पुस्तक से : 

इन शास्त्रो मे जिन सिद्धातों का निराकरण किया गया है, उनका प्रयोग गुप्ताकाल तक होता था। कुछ सदियों के बाद, आठवी सदिमें उनका प्रयोग फिर से शुरू हुआ। अवशेषोका अध्ययन कर, उन परिवर्तनों का पता लगाया जा सकता है, जो कि समय-समय पर हुए। ग्यारहवी और बारह्वी सदी मे जो शैली प्रचलित थी, वही आज तक चल रही है।

 

वेदो तथा पुराणो में जो प्रमाण मिलता है उनसे यह प्रतीत होता है कि प्राचीन कालमे जो घर बनते थे, वे सादे होते थे। उन्हें घास, बाँस, लकडी और मिट्टी आदि नाशवान् पदार्थोंसे बनाया जाता था। इस युग को कुटीर-युग कह सकते है। इसके बाद काष्ठ युग आया। इस दौरान मे काष्ठ निर्मित भवनो का निर्माण हुआ। उसके बाद इंटो का प्रयोग शुरू हुआ।

 

वास्तुकला के प्रति ऐसा दृष्टिकोण अपनाने से व्यर्थ का अतिरिक्त व्यय होता है। किसी विशाल भवन मे यदि थोड़ा सा खर्च उसे शोभित करनेमें लग जाये, तो उसे अधिक व्यय मानना उचित नहीं होगा। इस प्रकार का तर्क मिथ्या है, और उसके फलस्वरूप, हम अपनी वास्तुकला और चित्रकलाको नष्ट करते है, और अपनी सुरुचि को भी विकृत करते हैं।

 

 

ज्ञान उनही लोगो तक पहुँच पाता है जो उसकी शोध करते है। परंतु ज्ञान उनसे दूर रहता है, जो उसे प्राप्त करने योग्य नहीं होते है। अपने ग्रंथोमें मैंने सिद्धान्तवाक्य का पालन रहस्यो और उनके अर्थों को प्रस्तुत करते समय नही किया है। अनेक तीखे अनुभवो के बावजूद, मैंने इस ज्ञान भंडारको प्रकाश में लाने का पूरा पूरा प्रयास किया है। मेरे परिवारमे भी कला को अक्षुण्ण रखने की परम्परा का पालन मेरा पौत्र कर रहा है।

 (नोट : उपरोक्त टेक्स्ट मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियां संभव हैं, अतः इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये.)


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