ब्रह्म ज्ञान और उसकी साधना हिन्दी पुस्तक | Brahma Gyan Aur Uski Sadhna Hindi Book PDF

 

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ब्रह्म ज्ञान और उसकी साधना हिन्दी पुस्तक के बारे में अधिक जानकारी | More details about Brahma Gyan Aur Uski Sadhna Hindi Book



इस पुस्तक का नाम है : ब्रह्म ज्ञान और उसकी साधना | इस ग्रन्थ के लेखक/संपादक है: अनंतश्री स्वामी अखंडानन्द सरस्वती जी महाराज, श्रीमती सतीशबाला महेंद्रलाल जेठी, विष्णु आनंद | इस पुस्तक के प्रकाशक हैं : अज्ञात | इस पुस्तक की पीडीऍफ़ फाइल का कुल आकार लगभग 272 MB है | इस पुस्तक में कुल 420 पृष्ठ हैं | आगे इस पेज पर "ब्रह्म ज्ञान और उसकी साधना" पुस्तक का डाउनलोड लिंक दिया गया है जहाँ से आप इसे मुफ्त में डाउनलोड कर सकते हैं.


Name of the book is : Brahma Gyan Aur Uski Sadhna | Author/Editor of this book is : Anantshri Swami Akhandanand Saraswati ji Maharaj, Shrimati Satishbala Mahendralal Jethi, Vishnu Anand | This book is published by : Unknown | PDF file of this book is of size 272 MB approximately. This book has a total of 420 pages. Download link of the book "Brahma Gyan Aur Uski Sadhna" has been given further on this page from where you can download it for free.


पुस्तक के संपादकपुस्तक की श्रेणीपुस्तक का साइजकुल पृष्ठ
विष्णु आनंदभक्ति, धर्म272 MB420



पुस्तक से : 

'बहह्मज्ञान और उसकी साधना' - इस नामसे श्री गीताजी तेरहवें अध्यायपर परमपूज्य महाराज प्रवचन सन् १९६८ में प्रकाशित हुए थे। पिछले कई वर्षोंसे यह पुस्तक अनुपलब्ध हो गयी थी। परन्तु इसका दूसरा संस्करण निकालने की इच्छा होते हुए भी इस कार्य में बहुत विलम्ब हो गया।

 

गीता अर्थात् भगवान् श्रीकृष्णका विज्ञानोद्गारी परम मधुर दिव्य संगीत। भागवत-संगीत अर्थात् भगवानसे उत्पन्न समग्र प्रजाके लिए आनन्द, प्रकाश और दिव्य जीवनका अनुभूतिमय सन्देश। यह सात्त्विक राजस-तामस सम्पूर्ण प्रजाके लिए हितकारी है। स्वधर्ममें निष्ठा, उसका पालन और संवर्द्धन, साथ ही साथ फलकी उपलब्धि इस विद्याकी विशेषता है।

 

प्रसंगप्राप्त तेरहवें अध्यायपर ही विचार करें। तेरहवाँ अध्याय एक सीधी-सादी सार्वजनीन अनुभूतिका अनुवाद करता हुआ प्रारम्भ होता है। शरीर क्षेत्र है और इसका ज्ञाता क्षेत्रज्ञ। जड़ और चेतन, यह और में, प्रकाश्य और प्रकाशक क्षेत्रका विस्तार अत्यन्त विशाल है। एक नन्हें-से देहसे प्रारम्भ करके प्रकृति पर्यन्त इच्छा, द्वेषादि क्षेत्रके स्वभाव हैं कि विकार हैं, इस प्रपञ्च में पड़नेकी आवश्यकता नहीं।

 

 

कर्म और फल बीजमें हैं, जीवमें नहीं। क्षेत्र और क्षेत्रज्ञके हेतुफलात्मक बीज और हेतुफल-निरपेक्ष चेतनके विवेकके बिना जन्म-मरण रूप संसारसे मुक्ति नहीं हो सकती। संसार-संसरण, अनेक अवस्थाओं में भटकना, जीवन-मरण, वर-अचर, सुख-दुःख यही द्वन्द्वात्मक संसार है। विक्षेप समाधि भी द्वन्द्व है, साधन-साध्य भी द्वन्द्व है, उपास्य-उपासक भी द्वन्द्व है।

 (नोट : उपरोक्त टेक्स्ट मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियां संभव हैं, अतः इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये.)


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