सरल सर्वदेव प्रतिष्ठा विष्णुयाग समन्विता हिन्दी पुस्तक | Saral Sarva Deva Pratishtha Vishnuyag Samanvita Hindi Book PDF


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सरल सर्वदेव प्रतिष्ठा विष्णुयाग समन्विता हिन्दी पुस्तक के बारे में अधिक जानकारी | More details about Saral Sarva Deva Pratishtha Vishnuyag Samanvita Hindi Book



इस पुस्तक का नाम है : सरल सर्वदेव प्रतिष्ठा विष्णुयाग समन्विता | इस पुस्तक के लेखक/संपादक हैं : पंडित धरणीधर शास्त्री | इस पुस्तक के प्रकाशक हैं : श्री सरस्वती प्रकाशन, अजमेर | इस पुस्तक की पीडीऍफ़ फाइल का कुल आकार लगभग 46 MB है | इस पुस्तक में कुल 346 पृष्ठ हैं | आगे इस पेज पर "सरल सर्वदेव प्रतिष्ठा विष्णुयाग समन्विता" पुस्तक का डाउनलोड लिंक दिया गया है जहाँ से आप इसे मुफ्त में डाउनलोड कर सकते हैं.


Name of the book is : Saral Sarva Deva Pratishtha Vishnuyag Samanvita | This book is written/edited by : Pandit Dharanidhar Shastri | This book is published by : Shri Saraswati Prakashan, Ajmer | PDF file of this book is of size 46 MB approximately. This book has a total of 346 pages. Download link of the book "Saral Sarva Deva Pratishtha Vishnuyag Samanvita" has been given further on this page from where you can download it for free.


पुस्तक के संपादकपुस्तक की श्रेणीपुस्तक का साइजकुल पृष्ठ
पं. धरणीधर शास्त्रीभक्ति,धर्म46 MB346



पुस्तक से : 

यज्ञोपवीत बदल कर शुद्ध वस्त्र पहनकर तीर्थ स्थान हो तो वही वस्त्र पर अक्षतों से अष्टदल मांडकर एक ताम्रकलश मे अक्षतों पर शालिग्रामजी की मूर्ति की पुरुष सूक्त से पूजा करके, सस्त्रवप्राशन पूर्ण पात्र दानादि करके यज्ञ करने के लिए योग्य स्थान पर आ जावे।

 

कम संस्कृत जानने वाले विद्यार्थी उनसे विशेष लाभ नहीं उठा सकते। इसलिये हिन्दी विधान सहित इस सर्वदेव प्रतिष्ठा को बनाया गया है। आशा है कि अन्य दो कर्मकाण्डीय पुस्तकों के जैसा इसका भी प्रचार हो जायेगा। इनकी रचना समयोपयोगी तथा सरल प्रकारेण हुई।

 

उसके पासमें पूर्व की ओर योगिनी मण्डप बनाए। योगिनी तथा ५२ भैरवों का मण्डल उत्तर दक्षिण कोण में होता है। परन्तु योगिनी यहाँ भी हो सकती है जो भैरव मण्डल के सीध में बनती है। पूर्व और उत्तर के मध्य कोणमें नवग्रह मण्डल का स्थान एवं उनके नीचे रुद्रकलश स्थान एवं दीपक का स्थान होगा।

 

 

जहाँ-जहाँ पर सूत्र की समाप्ति हो तथा संधि हो वहाँ-वहाँ पर अग्निकोण से गाड़े। पहले बारह खम्भे बाहर गाड़े, ध्यान रहे कि पाँच-पाँच हाथ के और चूड़ के सहित दो-दो खम्भे सभी दिशा में हों। चारों कानों में ४ खंभे, इस प्रकार से कुल १२ खम्भे हुए। पीछे ४ खम्भे चूड़ के सहित आठ-आठ हाथों के आठ अंगुल चौड़ा, बीचकी वेदी के अग्निकोण से पाँचवा हिस्सा एक हाथ १४ अंगुल सात यव।

 (नोट : उपरोक्त टेक्स्ट मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियां संभव हैं, अतः इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये.)


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