अमृत सागर (आयुर्वेद) हिन्दी ग्रन्थ पीडीऍफ़ | Amrit Sagar (Ayurveda) Hindi Book PDF

   


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अमृत सागर (आयुर्वेद) हिन्दी पुस्तक के बारे में अधिक जानकारी | More details about Amrit Sagar (Ayurveda) Hindi Book



इस पुस्तक का नाम है : अमृत सागर (आयुर्वेद) | इस ग्रन्थ के लेखक/संपादक है: पंडित ज्ञारसरामजी | इस पुस्तक के प्रकाशक हैं : खेमराज श्रीकृष्णदास प्रकाशन, बम्बई | इस पुस्तक की पीडीऍफ़ फाइल का कुल आकार लगभग 285 MB है | इस पुस्तक में कुल 580 पृष्ठ हैं | आगे इस पेज पर "अमृत सागर (आयुर्वेद)" पुस्तक का डाउनलोड लिंक दिया गया है जहाँ से आप इसे मुफ्त में डाउनलोड कर सकते हैं.


Name of the book is : Amrit Sagar (Ayurveda) | Author/Editor of this book is : Pandit Gyarasramji | This book is published by : Khemraj Shrikrishnadas Prakashan, Bombay | PDF file of this book is of size 285 MB approximately. This book has a total of 580 pages. Download link of the book "Amrit Sagar (Ayurveda)" has been given further on this page from where you can download it for free.


पुस्तक के संपादकपुस्तक की श्रेणीपुस्तक का साइजकुल पृष्ठ
पं. ज्ञारसरामजीआयुर्वेद, स्वास्थ्य285 MB580



पुस्तक से : 

शरीर और जीवका जो संयोग हो उसे जीवन कहते हैं वह जीवनयुक्त जो समय उसे आयु कहते हैं और शरीर से जीवका वियोग होना उसे मृत्यु कहते हैं, जिसके द्वारा पुरुष आयुको पूर्णरूपसे प्राप्त हो तथा दूसरे की आयुको भी जान लेवे उसे मुनिराज आयुर्वेद कहते हैं, क्योंकि इसके द्वारा सेवन, सेवन अयोग्य पदार्थों के गुण कर्मका ज्ञान होने से सेवन योग्यका सेवन, अयोग्य का त्याग होता है जिससे आयु निश्चय की जाती है॥

 

किया हुआ आहार वायुकी प्रेरणासे आमाशयमें पहुँचता है, फिर वह आहार मधुरताको प्राप्त होता है, फिर वही आहार पाचक पित्तके प्रभावसे कुछ पककर खट्टा हो जाता है, अनंतर नाभिस्थित समान वायु से प्रेरित होके छठवीं ग्रहणी कलामें प्राप्त होता है.

 

अब वैद्यके लक्षण लिखते हैं - "सत्यवक्ता" गुरुसे निघण्टु निदान चिकित्सा आदि समग्र वैद्यविद्या पढा हुआ, अमृत के समान हाथवाला (अर्थात जहां औषधी दे वहां यशको ही प्राप्त), दवा देने में पूर्ण चतुर, निर्लोभी, धैर्यवान्, दयावान्, सदा पवित्रता से रहनेवाला, निष्कपटी और आलस्यरहित इन लक्षणोंसे जो युक्त हो वही सद्वैद्य कहाता है। सो उक्त वैद्यसे ही औषधि लेना चाहिये अन्यसे नहीं॥

 

 

अब वैद्यको जिन मुख्य कर्मो का विचार करना चाहिये सो लिखते हैं. प्रथम तो वैद्य इस बातपर पूर्ण ध्यान देवे कि चिकित्सा की हुई कभी निष्फल नहीं होती, क्योंकि कहीं तो औषध देनेसे धन मिलता है, कहीं मित्रता ही होती है, कहीं धर्म होता है, कहीं केवल यश ही प्राप्त होता है और यदि कुछ भी न हो तो वैद्यकर्म का अभ्यास तो बना ही रहता है इसलिये वैद्य चिकित्सा करने से कभी न हटे॥

 (नोट : उपरोक्त टेक्स्ट मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियां संभव हैं, अतः इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये.)


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