अमृत सागर नागरी हिन्दी पुस्तक | Amrit Sagar Nagari Hindi Book PDF

   

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अमृत सागर नागरी हिन्दी पुस्तक के बारे में अधिक जानकारी | More details about Amrit Sagar Nagari Hindi Book



इस पुस्तक का नाम है : अमृत सागर नागरी | इस ग्रन्थ के लेखक/संपादक है: विद्याभूषण वैद्यरत्न पं. हरिप्रसाद वैद्य | इस पुस्तक के प्रकाशक हैं : तेजकुमार बुक डिपो लिमिटेड | इस पुस्तक की पीडीऍफ़ फाइल का कुल आकार लगभग 432 MB है | इस पुस्तक में कुल 639 पृष्ठ हैं | आगे इस पेज पर "अमृत सागर नागरी" पुस्तक का डाउनलोड लिंक दिया गया है जहाँ से आप इसे मुफ्त में डाउनलोड कर सकते हैं.


Name of the book is : Amrit Sagar Nagari | Author/Editor of this book is : Vaidyaratna Pandit Hariprasad Vaidya | This book is published by : Tejkumar Book Depot Limited | PDF file of this book is of size 432 MB approximately. This book has a total of 639 pages. Download link of the book "Amrit Sagar Nagari" has been given further on this page from where you can download it for free.


पुस्तक के संपादकपुस्तक की श्रेणीपुस्तक का साइजकुल पृष्ठ
पं. हरिप्रसाद वैद्यआयुर्वेद, स्वास्थ्य432 MB639



पुस्तक से : 

अनेक प्रकार की पीड़ा को रोग कहते हैं। रोग दो प्रकार के हैं— एक कायिक, दूसरे मानसिक । काया में रहे सो कायिक, उसका नाम व्याधि है। मन में रहे सो मानसिक उसका नाम आधि है। ये दोनों शरीर में किसी प्रकार के कुपथ्य सेवात, पित्त, कफरूप दोष और मिथ्याहार-विहार के होने से सब रोगों को उपजाते हैं।

 

देखने, स्पर्श करने और पूछने से तथा स्वप्न, दूत, शकुन, काल ज्ञान, ओषध, देश, काल अवस्था तथा अग्निबल के विचार से एवं साध्य असाध्य आदि प्रकारों से रोगी की परीक्षा करनी उचित है, सो क्रमपूर्वक लिखते हैं पीलिया आदि कई एक रोग तो रोगी को देखने से हो वैद्य को विदित होते हैं और ज्वर आदि कई रोग रोगी के स्पर्श किये बिना नहीं जाने जाते

 

जो वैद्य रोगी की चिकित्सा करने को जाता होय उसको उस समय सम्मुख शीतल शकुन मिलें तो अच्छा और जो अग्नि आदि ले गर्म शकुन मिलें तो रोगी अच्छा न होय, और जो दूत वैद्य को बुलाने के लिए जाता होय उसको जल आदि शीतल शकुन सम्मुख मिलें तो रोगी अच्छा नहीं होय और अग्नि आदि गर्म वस्तु मिलें तो रोगी जल्दी अच्छा होय।

 

 

काल तीन प्रकार का होता है। शीतकाल १, उष्णकाल २, वर्षाकाल ३ | अब इनका विचार लिखते हैं। शीतकाल में शीत थोड़ा पड़े या बहुत पड़े, तो रोग उत्पन्न हो और शीतकाल में गर्मी का पड़ना भी विपरीत है, यह भी अच्छा नहीं। इसमें भी रोग होता है। इसी प्रकार उष्णकाल में उष्णता थोड़ी अथवा अधिक पड़े अथवा शीत पड़े तो रोग की उत्पत्ति होय।

 (नोट : उपरोक्त टेक्स्ट मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियां संभव हैं, अतः इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये.)


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