नूतन अमृत सागर पुस्तक पीडीऍफ़ | Nutan Amrit Sagar Book PDF

   


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नूतन अमृत सागर हिन्दी पुस्तक के बारे में अधिक जानकारी | More details about Nutan Amrit Sagar Hindi Book



इस पुस्तक का नाम है : नूतन अमृत सागर | इस ग्रन्थ के लेखक/संपादक है: श्री सवाई प्रताप सिंह जी महाराज, पंडित ज्ञारसरामजी | इस पुस्तक के प्रकाशक हैं : खेमराज श्रीकृष्णदास, बम्बई | इस पुस्तक की पीडीऍफ़ फाइल का कुल आकार लगभग 1.7 GB है | इस पुस्तक में कुल 574 पृष्ठ हैं | आगे इस पेज पर "नूतन अमृत सागर" पुस्तक का डाउनलोड लिंक दिया गया है जहाँ से आप इसे मुफ्त में डाउनलोड कर सकते हैं.


Name of the book is : Nutan Amrit Sagar | Author/Editor of this book is : Shri Savai Pratap Singh ji Maharaj, Pandit Gyarasramji| This book is published by : Khemraj Shrikrishnadas, Bombay | PDF file of this book is of size 1.7 GB approximately. This book has a total of 574 pages. Download link of the book "Nutan Amrit Sagar" has been given further on this page from where you can download it for free.


पुस्तक के संपादकपुस्तक की श्रेणीपुस्तक का साइजकुल पृष्ठ
पं. ज्ञारसरामजीआयुर्वेद, स्वास्थ्य1.7 GB574



पुस्तक से : 

विदित हो कि, श्रीमाजाधिराज जयपुराधीश श्री १२३ श्रीसवाई प्रतापसिंहजी महाराज ने सर्वप्रजाहितार्थ सद्वैयौद्वारा अनेकानेक वैद्यक ग्रन्थानुसार "प्रतापसागर" (जो कि "अमृतसागर” नामसे लोकों प्रसिद्ध है) अत्युत्तम वैद्यक ग्रन्थ बनवाके प्रसिद्ध किया, परन्तु उक्त ग्रन्थ मारवाड़ी भाषामें होनेके कारण सर्वसाधारण पुरुषों को यथार्थ रूप से ग्रन्थाशय ज्ञात नहीं होता था. अतएव हमारे मित्रवर श्रीयुत पण्डित कृष्णलालजी की आज्ञानुसार इस ग्रंथका अनुवाद शुद्ध नागरी भाषामें किया गया.

 

आहार किया हुआ वायुकी प्रेरणासे आमाशय में पहुँचता है, फिर वह आहार मधुरता को प्राप्त होता है, फिर वही आहार पाचक पित्तके प्रभावसे कुछ पककर खट्टा हो जाता है, अनंतर नाभिस्थित समान वायु से प्रेरित होके छठवीं ग्रहणी कला में प्राप्त होता है. तदनंतर वहाँ पक के कोठेकी अग्निसे कडुवा होता है, फिर कोठेकी अग्रि से पकके उत्तम रसरूप होजाता है.

 

जिस मनुष्यको कफ और तमोगुण अधिक हो उसे मूर्च्छा और निद्रा आती है, यदि वात पित्त और रजोगुण अधिक हो तो चक और संदेह होवे, कफ वात और तमोगुण अधिक होय तो तंद्रा [अधमुची आँखें] होती हैं यदि बल नष्ट हो गया हो तो ग्लानि: आती है तथा दुःख अजीर्ण और थकावट से भी ग्लानि होती है और निर्बलता से उत्साह न होवै तो आलस्य आता है.

 

 

यदि उत्तम प्रकार से न पककर कच्चा रह जाय तो वही आहार आँव बन जाता है. यदि कोठेकी अग्नि बलाढ्य हो तो आहारका रस मधुर होकर चिकना होता है, यही भली भाँति पका हुआ रस इस शरीरकी सर्व धातुओंको पुष्ट करके अमृतकी तुल्यता को प्राप्त होता है और उस आहारका रस यदि मंदाग्नि से दग्ध हो जावे तो उदरमें कडुवा अथवा खट्टा होके विषरूप होजाता है और शरीरमें रोगसमूहको उत्पन्न करता है.

 (नोट : उपरोक्त टेक्स्ट मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियां संभव हैं, अतः इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये.)


डाउनलोड लिंक :

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