भक्ति रसामृत सिन्धु हिन्दी पुस्तक | Bhakti Rasamrita Sindhu Hindi Book PDF

     

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भक्ति रसामृत सिन्धु हिन्दी पुस्तक के बारे में अधिक जानकारी | More details about Bhakti Rasamrita Sindhu Hindi Book



इस पुस्तक का नाम है : भक्ति रसामृत सिन्धु | इस ग्रन्थ के लेखक/संपादक है: स्वामी प्रभुपाद | इस पुस्तक के प्रकाशक हैं : भक्तिवेदांत बुक ट्रस्ट | इस पुस्तक की पीडीऍफ़ फाइल का कुल आकार लगभग 110 MB है | इस पुस्तक में कुल 380 पृष्ठ हैं | आगे इस पेज पर "भक्ति रसामृत सिन्धु" पुस्तक का डाउनलोड लिंक दिया गया है जहाँ से आप इसे मुफ्त में डाउनलोड कर सकते हैं.


Name of the book is : Bhakti Rasamrita Sindhu | Author/Editor of this book is : Swami Prabhupad | This book is published by : Bhaktivedanta Book Trust | PDF file of this book is of size 110 MB approximately. This book has a total of 380 pages. Download link of the book "Bhakti Rasamrita Sindhu" has been given further on this page from where you can download it for free.


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स्वामी प्रभुपादधर्म, भक्ति110 MB380



पुस्तक से : 

भगवान् चैतन्य देव का सिद्धान्त सार्वभौम है। जो कोई श्रीकृष्णके तत्व को जानता हो और उनकी सेवा के परायण हो, उसे ब्राह्मणवंश में जन्मे व्यक्ति से श्रेष्ठ समझा जाता है। सम्पूर्ण वैदिकशास्त्रों, विशेषतः भगवद्गीता, श्रीमद्भागवत का मूल सिद्धान्त यही है। भगवान् चैतन्य महाप्रभु के आन्दोलन के इसी सिद्धान्त को भक्तिरसामृतसिन्धु में दिखाया गया है।

 

भक्ति का अर्थ है सेवा करना किसी भी सेवा में कुछ न कुछ आकर्षण रहता है, जिससे सेवक उसमें निरन्तर लगा रहता है। इस जगत् में हम निरन्तर किसी न किसी प्रकार की सेवा में लगे रहते हैं और इस सेवा का उद्दीपन है वह आनन्द, जो हमें उससे मिलता है। पत्नी और सन्तान के स्नेहवश गृहस्थ दिन-रात अथक परिश्रम करता है। परोपकारी भी इसी प्रकार प्रेमवश बृहद परिवार के लिये कार्य करता है और जो राष्ट्रवादी है वह अपने देश और देशवासियों के लिये प्राणप्रण से प्रयास करता है।

 

जीवात्मा निरन्तर न तो इन्द्रियतृप्ति में रह सकता है और न त्याग में निरन्तर परिवर्तन चलता रहता है। हमें इनमें से किसी भी अवस्था में सुख नहीं मिलता क्योंकि हमारा शाश्वत् स्वरूप इन दोनों से भिन्न है। इन्द्रियतृप्ति अधिक समय तक नहीं रहती; अतएव उसे चपल सुख कहते हैं।

 

 

यदि हमारी वर्तमान देह कृष्णभावनाभावित क्रियाओं में लगी हुई है तो इस बात की गारण्टी है कि अगले जन्ममें हमें कम-से-कम मनुष्यकी योनितो अवश्य ही मिलेगी। यदि कोई कृष्णभावनाभावित क्रियाओं के परायण है तो यह निश्चित है कि भक्तियोगको पूर्ण न कर पाने की अवस्था में उसे मानव समाज में उच्च वर्गोंमें जन्मकी प्राप्ति होगी जिससे वह स्वतः कृष्णभावना में आगे उन्नति कर सके। अतएव कृष्णभावनाभावित सभी प्रामाणिक क्रियाएँ अमृत हैं। 'भक्तिरसामृतसिन्धु' का यही विषय है.

 (नोट : उपरोक्त टेक्स्ट मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियां संभव हैं, अतः इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये.)


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